अग्निदेवका एक वैदिक स्तोत्र

 

 वैश्व दिव्य शक्ति एवं संकल्पका सूक्त1

 

वया इदग्ने अग्नयस्ते अन्ये त्वे विश्वे अमृता मादयन्ते ।

वैश्वानर नाभिरसि क्षितीनां स्थूणेव जनाँ उपमिद् ययन्थ ।।

 

(अग्ने) हे अग्नि ! (अन्ये अग्नय: ते वया: इत्) अन्य ज्वालाएँ तेरे तनेकी शारवाएँमात्र हैं । (त्वे विश्वे अमृता: मादयन्ते) सब देव तुझमें ही अपना हर्षोन्मादपूर्ण आनन्द प्राप्त करते हैं । (वैश्वानर) हे विश्वव्यापी देव ! तू (क्षितीनां नाभि: असि) पृथिवी-लोकों और उनके निवासियोंकी नाभि है । तू (जनान्) सभी उत्पन्न मनुष्योंको (स्थूणा इव) एक स्तम्भकी तरह (ययन्थ) वशमें करता है और (उपमित्) उन्हें आश्रय देता है ।

मूर्धा दिवो नाभिरग्नि: पृथिव्या अथाभवदरती रोदस्यो: ।

तं त्वा देवासोऽजनयन्त देवं वैश्वानर ज्योतिरिदार्याय ।।

 

(अग्नि:) दिब्धज्वालारूप अग्नि (दिव: मूर्धा) द्युलोकका मस्तक और (पृथिव्या: नाभि:) पृथिवीकी नाभि है (अथ) और वह (रोदस्यो: अरति: अभवत्) एक ऐसी शक्ति है जो द्युलोक और पृथिवीलोक दोनोंमें कार्यरत एवं गतिशील है । (वैश्वानर) हे वैश्वानर ! (देवास:) देवोंने (तं त्वा देवम् अजनयन्त) उस तुझ देवको जन्म दिया जिससे कि तू (आर्याय ज्योति: इत्) आर्यके लिए ज्योति बन सके ।

आ सूर्ये न रश्मयो ध्रुव्रासो वैश्वानरे दधिरेऽग्ना वसूनि ।

या पर्वतेष्योषधीष्वप्सु या मानुषेष्यसि तस्य राजा ।।

 

(सूर्ये ध्रुवास: रश्मय: न) जैसे सूर्यमें स्थिर रश्मियाँ दृढ़तासे स्थित होती है उसी प्रकार (वसूनि) समस्त कोष (वैश्वानरे अग्ना) इस विश्व-

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1. वैश्वानर अग्निके प्रति नोधा गौतमके एक सूक्त (ऋ. मंडल 1 सूक्त 59 )से

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व्यापी देव और ज्वावालारूप अग्निमें (आ दधिरे) स्थापित हैं । (तस्य राजा असि) तू उन सब ऐश्वर्योंका राजा है (या ओषधीषु पर्वतेषु अप्सू) जो पृथिवीकी ओषधियों, पर्वतों और जलोंमें हैं, [ तस्य राजा असि ] उन सब संपदाओंका भी राजा है (या मानुषेषु) जो मनुष्योंमें हैं ।

बृहती इव सूनवे रोदसी गिरो होता मनुष्यो न दक्ष: ।

स्वर्वते सत्यशुष्माय पूर्वीर्वेश्वानराय नृतमाय यह्वी: ।।

 

(रोदसी) द्युलोक और पृथिवीलोक ऐसे बढ़ते हैं (सूनवे बृहती इव) मानो पुत्रके लिए बृहत्तर लोक हों । वह (होता) हमारे यज्ञका पुरोहित है और (दक्ष: मनुष्य: न गिर:) विवेकशील कृउशलतासे संपन्न व्यक्तिकी तरह हमारी वाणियोंको गाता है । (नृतमाय वैश्वानराय) वह इस परम बलशाली देव वैश्वानरके लिए गाता है जो अपने साथ (स्वर्वते पूर्वी: यह्वी:) सूर्यलोकके प्रकाशकों और उसकी अनेकों बलशाली धाराओंको लाता है क्योंकि (सत्यशुष्माय) उसका बल सत्यका बल है ।

दिवश्चित्ते बृहतो जातवेदो वैश्वानर प्र रिरिचे महित्वम् ।

राजा कृष्टीनामसि मानुषीणा युधा देवेभ्यो वरिवश्चकर्थ ।।

 

(वैश्वानर) हे विश्वव्यापी देव ! (जातवेद:) हे सब उत्पन्न वस्तुओके ज्ञाता ! (ते महित्वम्) तेरी अतिशय महिमा (बृहत: दिव: चित् प्र रिरिचे) महान् द्युलोकको आप्लावित कर उससे भी ऊपर चली जाती है । (कृष्टीनां मानुषीणां राजा असि) तू श्रम करनेवाले मानव प्राणियोंका राजा है । (युधा) युद्धके द्वारा तूने (देवेम्य: वरिव: चकर्थ) देवोंके लिए परम कल्याणका निर्माण किया है ।

वैश्वानरो महिम्ना विश्वकृष्टिर्भरद्वाजेषु यजतो विभावा ।

शातवनेये शतिनीभिरग्नि: पुरुणीथे जरते सूनृतावान् ।।

 

(वैश्वानर:) यह है विश्वव्यापी देव जो (महिम्ना) अपनी महिमासे (भरत्-वाजेषु विश्वकृष्टि:) समस्त प्रजाओंमें ज्ञान, बल व कर्मकी प्राप्तिके लिए श्रम करता है । यह (यजत: विभावा) यज्ञका देदीप्यमान स्वामी (शतिनीभि: अग्नि:) सैकड़ो ऐश्वर्योंसे युक्त ज्वाला है । (सूनृतावान्) यही है वह जिसके पास सत्यकी वाणी है । *

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* ऋ. 1 .59 के पहले पांच और 7वें मन्त्रका भावानुवाद । --अनुवादक

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